Ramdhari Singh Dinkar Rashmirathi मित्रों इस पोस्ट में रामधारी सिंह ‘ दिनकर ‘ के बारे में और रश्मिरथी के बारे में बताया गया है। आप यहां से Rashmirathi PDF फ्री में डाउनलोड कर सकते हैं। रामधारी सिंह ‘ दिनकर ‘ रचित Rashmirathi Book यहां से Download करें।
Ramdhari Singh Dinkar Rashmirathi PDF रश्मिरथी फ्री डाउनलोड
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रामधारी सिंह ” दिनकर “ जी आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के रचनाकार है। हिंदी साहित्य के एक प्रमुख लेखक कवि व निबंधकार के रूप में उनकी पहचान थी।
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ छाया वादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। दिनकर जी स्वतंत्रता के पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप स्थापित थे।
उनकी कविताओं में ओज के साथ ही विद्रोह और क्रांति की आवाज सुनाई देती है। स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र कवि की पहचान दिनकर जी को मिली थी।
उनकी रचना में कोमल और श्रृंगारिक भावनाओं को भी उचित स्थान मिला हुआ है। श्रृंगार और विद्रोह इन्ही दो प्रवृत्तियों का चरम उत्कर्ष कुरुक्षेत्र और उवर्शी नामक रचनाओं में मिलता है।
दिनकर जी श्रेष्ठ रचनाओं में रश्मि रथी का उच्च स्थान है। रश्मि रथी का मतलब है “सूर्य की सारथी”। रश्मि रथी का प्रकाशन 1952 में हुआ था। रश्मि रथी दिनकर जी द्वारा रचित प्रसिद्ध खंड काव्य है।
रश्मि रथी में कुल 7 सर्ग है। इसे दिनकर जी ने महाभारतीय कथानक से ऊपर उठाकर कर्ण को वफादार व नैतिकता के नए धरातल पर उतारकर उसे गौरव से विभूषित कर दिया है। इसमें कर्ण के सभी पक्षों का सजीव से वर्णन किया गया है।
दिनकर जी ने रश्मि रथी में सामाजिक और पारिवारिक संबंधों के नए सिरे से विवेचना की है। चाहे वह छल प्रपंच के बहाने, या विवाहित व अविवाहित मातृत्व हो या फिर गुरु शिष्य संबंध हो।
रश्मि रथी से यह सन्देश मिलता है कि जन्म की अवैधता होते हुए भी कर्म की वैधता पर सवाल नहीं लगता, कर्म की वैधता ख़त्म नहीं हो सकती। यह काव्य मनुष्य के गुणों की पहचान की लालसा का काव्य है।
अंततः जिस मनुष्य का कर्म श्रेष्ठ हो उसका मूल्यांकन उसी कर्म के आधार पर होना चाहिए न कि उसके ऊंचे कुल में जन्म लेने से। मनुष्य अपनी मृत्यु से पूर्व ही अपने कर्मों के द्वारा अपनी एक पहचान बना लेता है। यानी कि मृत्यु के पूर्व ही उसका एक और जन्म होता है।
Rashmirathi Short Summary in Hindi
रश्मिरथी में सूर्य पुत्र कर्ण की पूरी जीवनी है। जिसे राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने बड़े ही भाव से लिखा है। जब आप रश्मिरथी पढ़ते है तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे आप रश्मिरथी को जी रहे हो, पूरा का पूरा चित्र आपके सम्मुख सजीव चित्रित हो जाता है।
रश्मिरथी में कर्ण के जन्म, दुर्योधन से मिलना, कृष्ण से मित्रता, श्री कृष्ण की दुर्योधन को चेतावनी, कुंती कर्ण संवाद, कर्ण और श्री कृष्ण के संवाद को बड़े ही मोहक और सटीक ढंग से लिखा गया है।
रश्मिरथी के एक-एक शब्द आपको पूरी कविता पढ़ने को आकर्षित करते है। इसके अलावा आप परशुराम की प्रतीक्षा भी पढ़ सकते है।
रश्मिरथी सर्वप्रथम 1952 में प्रकाशित हुई। इसमें कुल 7 सर्ग है। नीचे रश्मिरथी के सभी सर्ग दिए जा रहे है आप उन्हें पढ़ सकते है और Pdf के रूप में डाउनलोड भी कर सकते है।
रश्मिरथी के कुछ अंश
जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को।
किसी वृन्त पर खिले विपिन में, पर, नमस्य है फूल,
सुधी खोजते नहीं, गुणों का आदि, शक्ति का मूल।ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,
दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।
क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग,
सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक।
जिसके पिता सूर्य थे, माता कुन्ती सती कुमारी,
उसका पलना हुआ धार पर बहती हुई पिटारी।
सूत-वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर,
निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्भुत वीर।
तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी,
जाति-गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी।
ज्ञान-ध्यान, शस्त्रास्त्र, शास्त्र का कर सम्यक् अभ्यास,
अपने गुण का किया कर्ण ने आप स्वयं सुविकास।
2-अलग नगर के कोलाहल से, अलग पुरी-पुरजन से,
निज समाधि में निरत, सदा निज कर्मठता में चूर,
वन्यकुसुम-सा खिला कर्ण, जग की आँखों से दूर।नहीं फूलते कुसुम मात्र राजाओं के उपवन में,
अमित बार खिलते वे पुर से दूर कुञ्ज-कानन में।
समझे कौन रहस्य ? प्रकृति का बड़ा अनोखा हाल,
गुदड़ी में रखती चुन-चुन कर बड़े कीमती लाल।
जलद-पटल में छिपा, किन्तु रवि कब तक रह सकता है?
युग की अवहेलना शूरमा कब तक सह सकता है?
पाकर समय एक दिन आखिर उठी जवानी जाग,
फूट पड़ी सबके समक्ष पौरुष की पहली आग।
रंग-भूमि में अर्जुन था जब समाँ अनोखा बाँधे,
बढ़ा भीड़-भीतर से सहसा कर्ण शरासन साधे।
कहता हुआ, ‘तालियों से क्या रहा गर्व में फूल?
अर्जुन! तेरा सुयश अभी क्षण में होता है धूल।’
‘तूने जो-जो किया, उसे मैं भी दिखला सकता हूँ,
चाहे तो कुछ नयी कलाएँ भी सिखला सकता हूँ।
आँख खोल कर देख, कर्ण के हाथों का व्यापार,
फूले सस्ता सुयश प्राप्त कर, उस नर को धिक्कार।’
इस प्रकार कह लगा दिखाने कर्ण कलाएँ रण की,
सभा स्तब्ध रह गयी, गयी रह आँख टँगी जन-जन की।
मन्त्र-मुग्ध-सा मौन चतुर्दिक् जन का पारावार,
गूँज रही थी मात्र कर्ण की धन्वा की टंकार।
3- फिरा कर्ण, त्यों ‘साधु-साधु’ कह उठे सकल नर-नारी,
द्रोण, भीष्म, अर्जुन, सब फीके, सब हो रहे उदास,
एक सुयोधन बढ़ा, बोलते हुए, ‘वीर! शाबाश !’द्वन्द्व-युद्ध के लिए पार्थ को फिर उसने ललकारा,
अर्जुन को चुप ही रहने का गुरु ने किया इशारा।
कृपाचार्य ने कहा- ‘सुनो हे वीर युवक अनजान’
भरत-वंश-अवतंस पाण्डु की अर्जुन है संतान।
‘क्षत्रिय है, यह राजपुत्र है, यों ही नहीं लड़ेगा,
जिस-तिस से हाथापाई में कैसे कूद पड़ेगा?
अर्जुन से लड़ना हो तो मत गहो सभा में मौन,
नाम-धाम कुछ कहो, बताओ कि तुम जाति हो कौन?’
‘जाति! हाय री जाति !’ कर्ण का हृदय क्षोभ से डोला,
कुपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला
‘जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाषंड,
मैं क्या जानूँ जाति ? जाति हैं ये मेरे भुजदंड।
‘ऊपर सिर पर कनक-छत्र, भीतर काले-के-काले,
शरमाते हैं नहीं जगत् में जाति पूछनेवाले।
सूत्रपुत्र हूँ मैं, लेकिन थे पिता पार्थ के कौन?
साहस हो तो कहो, ग्लानि से रह जाओ मत मौन।
‘मस्तक ऊँचा किये, जाति का नाम लिये चलते हो,
पर, अधर्ममय शोषण के बल से सुख में पलते हो।
अधम जातियों से थर-थर काँपते तुम्हारे प्राण,
छल से माँग लिया करते हो अंगूठे का दान।
Rashmirathi Manoj Muntshir on Youtube
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